Thursday, 21 November 2019
विदेशी लिबास में संस्कृत बचाने आये ढोंगी
Tuesday, 19 November 2019
How can a Muslim Professor gives his teaching in Sanskrit department in Modi's era.
After reading this Firoz Khan's story, I think all of us as Indians need to ask ourselves if this is the kind of bigotry and hatred that we want to project on our country and live with. If yes, then we are already beyond repair.
In 1920, Ramswaroop Shastri appointed 1st Sanskrit lecturer in Aligarh Muslim University. On 11 Sep 1949, in the meeting of National Language Search Committee (NLSC) Ambedkar's suggestion to make Sanskrit the national language was accompanied by Prof. Naziruddin Ahmed (MP from Bengal).
In present AMU out of 6 teachers there is 4 Muslim professors in sanskrit department.
I am a Muslim. I always scored 90+ in Sanskrit during my school days. I somehow enjoyed the language. There were many Hindu students who struggled to get even passing marks in this subject. My Sanskrit teacher Afzal Khan was a muslim too.That was my childhood !
"Prominent Hindus in my area praised me for my knowledge of Sanskrit and its literature despite being a Muslim, Studied sanskrit all my life, never made to feel I'm a Muslim, but now..."- Firoz Khan.
Sanskrit is almost a dead language barely only few people in India consider it their mother tongue and God knows how many actually communicate in it.
If any white foreigner come forward to teach Sanskrit in BHU, they will immediately fall at his feet.
It is not about Sanskrit. It is all about their hatred mindset towards Muslim community.
Protesting against the newly appointed Asst. Professor Feroz khan. Why Supreme Court is not using its Suo-moto power in the violation of Art 15 of the Constitution of India.
Govt must take stern action against such ratbag minded people.
I'm attaching a link of a brahmin female who have teach 29 yrs as a Arabic professor and also with this what Madan Mohan Malviya the founder of BHU who's thoughts about all religion.
https://www.thenewsminute.com/article/first-brahmin-woman-teach-arabic-kerala-retire-after-29-years-service-40313?amp&__twitter_impression=true
#FirozKhan
#BHU
#SupportWithFeroze
Monday, 18 November 2019
CM Yogi's New plan of Action "Agra will rename to Agravan".
Tuesday, 12 November 2019
तुम 3500 करोड़ की मूर्ति बनाओ पर कोई गरीब परिवार का बच्चा कम पैसों में पढ़ नहीं सकता है।
Students of India is not Burden on currupt leaders.
For all those running the hashtag #ShutDownJNU they should hear these voices first.Remember #RajmalMeena
For all those running the hashtag #ShutDownJNU they should hear these voices first.
Remember #RajmalMeena? He worked as security guard in JNU cracked the entrance. He could dream to study in JNU because he knew it was an University he could afford. JNU is proud of him. We need more Rajmal Meena's, for that to keep happening.
#FeesMustFall
Sunday, 10 November 2019
“There is reward for kindness to every living thing.” Prophet Muhammad ﷺ(peace be upon him)
Thursday, 7 November 2019
आखरी बादशाह का आज का आखरी दिन
कितना बदनसीब है ज़फर दफन के लिए,
दो गज़ ज़मीं न मिली इस कूहे यार में!
#7नवम्बर1862
"मैं वह बदनसीब हूँ जिसपर तक़दीर को रोने का हक़ है"-बहादुर शाह ज़फ़र
सितंबर में म्यांमार के अपने दो दिन के दौरे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र की मज़ार पर गए थे.
बहादुर शाह ज़फ़र की क़ब्र असल में कहां है, इसे लेकर विवाद है इसीलिए इस पर चर्चा हो रही है कि जिस मज़ार पर मोदी गए, क्या वो बहादुर शाह की असल मज़ार थी.
6 नवंबर 1862 को भारत के आखिरी मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय मिर्ज़ा अबूज़फ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फ़र को लकवे का तीसरा दौरा पड़ा और 7 नवंबर की सुबह 5 बजे उनका देहांत हो गया.
सैयद मेहदी हसन अपनी किताब 'बहादुर शाह ज़फ़र ऐंड द वॉर ऑफ़ 1857 इन डेली' में लिखते हैं कि बहादुर शाह के कर्मचारी अहमद बेग के अनुसार 26 अक्तूबर से ही उनकी तबीयत नासाज़ थी और वो मुश्किल से खाना खा पा रहे थे. "दिन पर दिन उनकी तबीयत बिगड़ती गई और 2 नवंबर को हालत काफी बुरी हो गई थी. 3 नवंबर को उन्हें देखने आए डॉक्टर ने बताया कि उनके गले की हालत बेहद ख़राब है और थूक तक निगल पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा है." सैयद मेहदी हसन लिखते हैं कि 6 नवंबर को डॉक्टर ने बताया कि उन्हें गले में लकवा मार गया है और वो लगातार कमज़ोर होते जा रहे हैं.
7 नवंबर 1862 को उनकी मौत हो गई. जब उनकी मौत हुई वो अंग्रेज़ों की कैद में भारत से दूर रंगून में दफन कर दिया!
ज़फ़र महल के लाल पत्थर के तीन मंजिला द्वार का निर्माण बहादुर शाह ज़फ़र ने कराया था, जिसे 'हाथी दरवाज़ा' कहा जाता था. इसके ऊपर छज्जे बने हुए थे और सामने की खिड़कियों में बंगाली वास्तुकला की झलक मिलती थी. गर्मियों में बहादुर शाह ज़फ़र यहीं वक़्त बिताया करते थे.
ब्रिगेडियर जसबीर सिंह अपनी किताब 'कॉम्बैट डायरी: ऐन इलस्ट्रेटेड हिस्ट्री ऑफ़ ऑपरेशन्स कनडक्टेड बाय फोर्थ बटालियन, द कुमाऊं रेजिमेंट 1788 टू 1974' में लिखते हैं, "रंगून में उसी दिन शाम 4 बजे 87 साल के इस मुग़ल शासक को दफना दिया गया था."
वो लिखते हैं, "रंगून में जिस घर में बहादुर शाह ज़फ़र को क़ैद कर के रखा गया था उसी घर के पीछे उनकी कब्र बनाई गई और उन्हें दफनाने के बाद कब्र की ज़मीन समतल कर दी गई. ब्रतानी अधिकारियों ने ये सुनिश्चित किया कि उनकी कब्र की पहचान ना की जा सके."
"जब उनके शव को दफ्न किया गया वहां उनके दो बेटे और एक भरोसेमंद कर्मचारी मौजूद थे."
सैयद मेहदी हसन ने लिखा है, "उनकी कब्र से आसपास बांस से बना एक बाड़ा लगाया गया था लेकिन वक्त के साथ वह नष्ट हो गया होगा और उसकी जगह घास उग आई होगी. इसके साथ ही आख़िरी ग्रेट मुग़ल की कब्र की पहचान के आखिरी निशां भी मिट गए होंगे."
भारत के मशहूर मुग़लकालीन इतिहासकार हरबंस मुखिया के अनुसार "अंग्रेज़ों ने बहादुर शाह ज़फ़र को दफ़्न कर ज़मीन को बराबर कर दिया था ताकि कोई पहचान नहीं रहे कि उनकी क़ब्र कहां है. इसलिए उनकी क़ब्र कहां है इसे लेकर यक़ीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता."
वो कहते हैं, "बहादुर शाह ज़फ़र चाहते थे कि उन्हें दिल्ली के महरौली में दफ़्न किया जाए लेकिन उनकी आख़िरी इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी."
अपनी किताब 'द लास्ट मुग़ल' में विलियम डेरिम्पल लिखते हैं, "जब 1882 में बहादुर शाह ज़फ़र की पत्नी ज़ीनत महल की मौत हुई तब तक बहादुर शाह ज़फ़र की कब्र कहां थी, ये किसी को याद नहीं था. इसीलिए उनके शव को अंदाज़न उसी जगह एक पेड़ के क़रीब ही दफना दिया गया."
डेरिम्पल लिखते हैं कि "1903 में भारत से कुछ पर्यटक बहादुर शाह ज़फ़ऱ की मज़ार पर जा कर उन्हें याद करना चाहते थे. इस वक्त तक लोग ज़ीनत महल की कब्र की जगह भी भूल चुके थे. स्थानीय गाइड्स ने एक बूढ़े पेड़ की तरफ इशारा किया था."
वो लिखते हैं "1905 में मुग़ल बादशाह की कब्र की पहचान और उसे सम्मान देने के पक्ष में रंगून में मुसलमान समुदाय ने आवाज़ उठाई. इससे जुड़े प्रदर्शन कई महीने चलते रहे जिसके बाद 1907 में ब्रिटिश प्रशासन ने इस बात पर राज़ी हुआ कि उनकी कब्र पर पत्थर लगवाया जाएगा."
"ये तय हुआ कि इस पत्थर पर लिखा जाएगा, 'बहादुर शाह, दिल्ली के पूर्व बादशाह, रंगून में 7 नवंबर 1862 में मौत, इस जगह के क़रीब दफ्न किए गए थे.' "
"बाद में उसी साल ज़ीनत महल की कब्र पर भी पत्थर लगवाया गया."
सैयद मेहदी हसन ने भी लिखा है कि 1907 में ब्रितानी अधिकारियों ने एक कब्र बना कर वहां पत्थर रखवाया.
बहादुर शाह ज़फ़र की मज़ार रंगून में है, लेकिन हर वर्ष नवंबर के महीने में भारत में उनका उर्स धूमधाम से मनाया जाता है.
ब्रिगेडियर जसबीर सिंह ने लिखा है कि 1991 में इस इलाके में एक नाले की खुदाई के दौरान ईंटों से बनी एक कब्र मिली जिसमें एक पूरा कंकाल मिला था.
रंगून में बहादुरशाह ज़फ़र के मज़ार के ट्रस्टी यानी प्रबंधक कमेटी के एक सदस्य और म्यांमार इस्लामिक सेंटर के मुख्य कंवेनर अलहाज यूआई लुइन के अनुसार "जो क़ब्र मिली जिसके बारे में स्पष्ट तौर से न सही लेकिन सारे लोगों ने यह मान लिया कि बहादुरशाह ज़फ़र की असली क़ब्र यही है. इसके कई कारण हैं."
वो कहते हैं, "हालांकि बहादुरशाह ज़फ़र को मुसलमानों के रीति रिवाज़ के अनुसार दफ़नाया गया लेकिन अंग्रेज़ों ने जानबूझ कर यह कोशिश की कि उनके क़ब्र का कोई निशान न रहे."
वर्ष 1991 में मरम्मत के लिए जब खुदाई हुई तो यह क़ब्र मिली. इसे लोग बहादुर शाह ज़फ़र की असली क़ब्र मानते हैं. कहा जाता है कि अंग्रेज़ों ने उनकी क़ब्र को नष्ट कर दिया था.
पवन कुमार वर्मा ने ग़ालिब पर लिखी अपनी किताब में कहा है कि मुग़ल बादशाह की मौत के बाद ग़ालिब ने अपने एक मित्र को इस बारे में बताया-
"शुक्रवार 7 नवंबर 1862 को अबूज़फ़र सिराजुद्दीन बहादुर शाह को ब्रितानी क़ैद और अपने शरीर की क़ैद से मुक्ति मिल गई. हम ईश्वर से ही आए हैं और उन्हीं के पास हमें वापिस जाना है."
Tuesday, 5 November 2019
डेंगू के मच्छर से बचाव
Sunday, 3 November 2019
बाबरी मस्जिद और राम मंदिर के फैसले पर अमन की अपील
Friday, 1 November 2019
इंसानियत का पैगाम
इस नफऱत के दौर में अभी ऐसे लोगों ने भारत की संस्कृति को बचाकर रखा है।
#InspiredbyMuhammad ﷺ
#MuhammadForAll
Thursday, 31 October 2019
Sardar Patel to AMU
Sardar Patel (1875-1950) was conferred honorary degree, LL.D., by AMU, on February 27, 1950. The convocation address was delivered by Govind Ballabh Pant.
#SardarVallabhbhaiPatelJayanti #SardarPatel
Wednesday, 30 October 2019
अमीरों के देश में दीये के तेल से खाना बनाने पर मजबूर एक गरीब परिवार
#JusticeForVijay
I have filed an FIR against BJP leader Kapil Mishra
Respected Sir, today on 12:36pm a national party BJP leader named Kapil Mishra who was an MLA from AAP in delhi and suspended on fraud case. Sir he continuously tweeted on the targeted community and respected leaders and today he wanted to create communal tension between hindu and muslim through his tweet. Please filed a case against him on sedition charges and send him to
jail. Delhi the national capital of India is very peaceful and the heart of the country and these type of vermin create tension between the community by there social sites.His personal information:
Kapil Mishra S/O R.P. Mishra
Add: B-2/ 212 Yamuna Vihar, Delhi 110053.
Mobile- 9818066041
Thursday, 24 October 2019
First Life Member of AMUSU. Mahatma Gandhi 25 Oct 1920 at AMU.
Tuesday, 22 October 2019
Founder House AMU
Monday, 21 October 2019
#119th #BirthAnniversary #AshfaqullahKhan
#119th #BirthAnniversary #AshfaqullahKhan
भारत के इतिहास में कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़े में लिए जाते हैं जैसे भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और राजगुरू. ऐसा ही एक और बहुत मशहूर जोड़ा है रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक़ उल्ला खां का. इसका रीज़न सिर्फ ये नहीं कि काकोरी कांड में यही दोनों मेन आरोपी थे. बल्कि इसका रीज़न था कि दोनों एक-दूसरे को जान से भी ज़्यादा चाहते थे. दोनों ने जान दे दी, पर एक-दूसरे को कभी धोखा नहीं दिया.
रामप्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे पंडित जुड़ा था. वहीं अशफाक एक कट्टर मुस्लिम थे, वो भी पंजवक्ता नमाज़ी थे. पर इस बात का कोई फर्क दोनों पर नहीं पड़ता था. क्योंकि दोनों का मक़सद एक ही था "आजाद मुल्क़, वो भी मज़हब या किसी और आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नहीं, बल्कि पूरा का पूरा". इनकी दोस्ती की मिसालें आज भी दी जाती हैं.
धीरे धीरे वे राम प्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आये और बाद में उनके दल के भरोसेमंद साथी बन गए. इस तरह से वे क्रांतिकारी जीवन में आ गए. वे हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे. उनके लिये मंदिर और मस्जिद एक समान थे. एक बार शाहजहाँपुर में हिन्दू और मुसलमान आपस में झगड़ गए और मारपीट शुरू हो गयी. उस समय अशफाक़ बिस्मिल के साथ आर्य समाज मन्दिर में बैठे हुए थे. कुछ मुसलमान मंदिर पर आक्रमण करने की फ़िराक में थे. अशफाक़ ने फ़ौरन पिस्तौल निकाल लिया और गरजते हुए बोले – "मैं भी कट्टर मुस्लमान हूँ लेकिन इस मन्दिर की एक-एक ईट मुझे प्राणों से प्यारी हैं. मेरे लिये मंदिर और मस्जिद की प्रतिष्ठा बराबर है. अगर किसी ने भी इस मंदिर की तरफ़ नज़र उठाई तो मेरी गोली का निशाना बनेगा. अगर तुम्हें लड़ना है तो बाहर सड़क पर जाकर खूब लड़ो". यह सुनकर सभी के होश उड़ गए और किसी का साहस नहीं हुआ कि उस मंदिर पर हमला करे.
राम प्रसाद बिस्मिल से दोस्ती :
चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने अपना असयोग आंदोलन वापस ले लिया था, तब हज़ारों की संख्या में युवा खुद को धोखे का शिकार समझ रहे थे. अशफ़ाक उल्ला खां उन्हीं में से एक थे. उन्हें लगा अब जल्द से जल्द भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति मिलनी चाहिए. इस उद्देश्य के साथ वह शाहजहांपुर के प्रतिष्ठित और समर्पित क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के साथ जुड़ गए. आर्य समाज के एक सक्रिय सदस्य और समर्पित हिंदू राम प्रसाद बिस्मिल अन्य धर्मों के लोगों को भी बराबर सम्मान देते थे. वहीं दूसरी ओर एक कट्टर मुसलमान परिवार से संबंधित अशफ़ाक़ उल्ला खां भी ऐसे ही स्वभाव वाले थे. धर्मों में भिन्नता होने के बावजूद दोनों का मक़सद सिर्फ देश को स्वराज दिलवाना ही था. यही कारण है कि जल्द ही अशफ़ाक़ राम प्रसाद बिस्मिल के विश्वासपात्र बन गए. धीरे-धीरे इनकी दोस्ती भी गहरी होती गई.
एक बार की बात है, तस्द्दुक़ हुसैन उस वक्त दिल्ली के CID के Dy. SP हुआ करते थे. उन्होंने अशफाक़ और बिस्मिल की दोस्ती को हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेलकर तोड़ने की भरसक कोशिश की और बोले देखो अशफ़ाक़ हम तुम दोनों मुसलमान हैं और बिस्मिल आर्य समाजी काफ़िर है, तुम क्रांतिकारियों के बारे में सब कुछ बता दो हम तुम्हें इज़्ज़त देंगे, शोहरत देंगे", ये सुनकर अशफ़ाक़ का चेहरा गुस्से से तमतमा गया और बोले कि " पण्डितजी, "बिस्मिल" सच्चे भारतीय हैं और आपने उन्हें काफ़िर बोला, दूर चले जाइए मेरी नज़रों से", ऐसे में उन्होंने एक रोज़ अशफाक़ का बिस्मिल पर विश्वास तोड़ने के लिए झूठ बोला और कहा कि "बिस्मिल ने सच बोल दिया है और सरकारी गवाह बन रहा है". तब अशफाक ने Dy. SP को जवाब दिया, "खान साहब! पहली बात, मैं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे अच्छी तरह जानता हूं. और जैसा आप कह रहे हैं, वो वैसे आदमी नहीं हैं. दूसरी बात, अगर आप सही भी हों तो भी एक हिंदू होने के नाते वो ब्रिटिशों, जिनके आप नौकर हैं, उनसे बहुत अच्छे होंगे".
देश पर शहीद हुए इस शहीद की यह रचना :
कस ली है कमर अब तो कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
हटने के नहीं पीछे डर कर कभी ज़ुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।
बेशस्त्र नहीं है हम बल है हमें चरखे का,
चरखे से ज़मीं को हम ता चर्ख गुँजा देंगे।
परवा नहीं कुछ दम की गम की नहीं मातम की है,
जान हथेली पर एक दम में गवाँ देंगे।
उफ़ तक भी ज़ुबाँ से हम हरगिज़ न निकालेंगे,
तलवार उठाओ तुम हम सर को झुका देंगे।
सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका,
चलवाओ गन मशीनें हम सीना अड़ा देंगे।
दिलवाओ हमें फाँसी ऐलान से कहते हैं,
खूं से ही हम शहीदों के फ़ौज बना देंगे।
मुसाफ़िर जो अंडमान के तूने बनाए ज़ालिम,
आज़ाद ही होने पर हम उनको बुला लेंगे।
Saturday, 19 October 2019
Asrar-Ul-Haq Majaz
एक मर्द की पढ़ाई बस उसके परिवार तक ही काम आती है लेकिन एक पढ़ी लिखी औरत पूरी पीढ़ी को सँवारती है
मेरे जीने का तरीक़ा ही मेरी बेबाक़ी है,
तुम्हारे उसूल और सलीक़े मेरे काम के नहीं!
किसी भी यूनिवर्सिटी और कॉलेज का कन्वोकेशन हम सब स्टूडेंट्स के लिए एक त्योहार की तरह होता है और जब हम अपनी सालों की मेहनत का फल एक कागज़ के टुकड़े के रूप में लेने जाना होता है तो सोचतें हैं कि खूब अच्छे से तैयार होकर जाएं और जब हमें अपनी डिग्री बड़ी इज़्ज़त के साथ उसी प्रोग्राम के स्टेज पर बुलाकर मिलने वाली होती है तब एक अजीब सी खुशी होती है!
मेरे देश में जहां हर 25 किमी पर भाषा और रहन सहन बदल जाता है, पहनावे से ही उसके कल्चर और धर्म की पहचान होती है वहीँ लड़कियों की पढ़ाई के मामले में अभी भी भारतीय मां-बाप बहुत हिचकिचाते हैं क्योंकि कहीँ न कहीं देश में हुई हज़ारों निर्भया जैसी इंसानियत को खत्म करने वाली घटनाएं उनको अपनी लड़कियों की सुरक्षा के लिए सोंचने पर मजबूर कर देती हैं, जहां इस देश में 6 महीने की बच्ची से लेकर 80 साल की बूढ़ी औरत को भी दरिंदे अपनी हवस का शिकार बनाने में पीछे नहीं हटते, उस देश में बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाना उन दरिंदों से कहीं भी कम नहीं है!
कहा जाता है कि एक मर्द की पढ़ाई बस उसके परिवार तक ही काम आती है लेकिन एक पढ़ी लिखी औरत पूरी पीढ़ी को सँवारती है, हम उस समाज में अगर एक औरत को उसके अपने चुने हुए पहनावे की वजह से उसको समाज में हिकारत की नज़र से देखते हों तो समाज के उत्थान की परिकल्पना झूठी और दिखावा है!
हिन्दू लड़कियां अगर डिज़ाईनदार साड़ियां पहनकर अपनी डिग्री लेने गईं तो इसमें भी कोई बुराई नहीं होनी चाहिए वैसे ही अगर कोई मुस्लिम लड़की बुर्क़ा पहनकर अपनी डिग्री लेना चाहती थी तो उसमें भी कोई बुराई नहीं थी बल्कि उस कॉलेज के लिए ही फख्र की बात थी जो एक मुस्लिम लड़की ने हज़ारों बच्चों को पीछे करते हुए टॉप करके ये डिग्री हासिल कर रही थी लेकिन जब इंसान की मानसिकता संकीर्ण ही हो जाये तब किसी भी समाज का भला नहीं हो सकता है, जहां औरतों को सिर्फ़ एक इस्तेमाल का सामान समझा जाता है!
किन हालातों से लड़ते हुए और समाज में फैली नफ़रत के बावजूद भी एक लड़की ने कैसे कैसे अपनी डिग्री हासिल करने की जद्दोजहद की होगी शायद ही ये छोटी सोंच वाले लोगों को एहसास भी नहीं होगा! 360 किमी का सफर तय करके और पूरे कॉलेज में ओवरआल बेस्ट ग्रेजुएट में टॉप करने वाली निशात फ़ातिमा को उसकी च्वाइस के परिधान में डिग्री न देकर राँची यूनिवर्सिटी ने ज़रूर अपनी संकीर्ण सोंच को दर्शा दिया है! इससे यह बात अब पूरे झारखंड और रांची में हमेशा के लिए आम हो जाएगी उन सभी मुसलमानों के घरों की लड़कियों का एडमिशन रांची यूनिवर्सिटी में नहीं दिलाएंगे जिनके घरों में बुर्क़ा पहनने का चलन आम है!
जहां दूसरे देश में लड़कियों की पढ़ाई पर सबसे ज़्यादा ध्यान दिया जाता है वहीँ हमारे देश में उसकी पोशाक की वजह से रांची विश्विद्यालय में डिग्री देने से मना कर दिया जाता है, फिलहाल में फ़िरोज़ाबाद के कॉलेज में बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाई जाती है और अलीगढ़ के धर्मसमाज कॉलेज में धर्म के कट्टरपंथी मानसिकता वाले और समाज को उत्थान करने का झूठा नाटक करने वाले छात्र नेताओं द्वारा बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगाने के लिए अधिकारियों को अल्टीमेटम दिया जाता है!
जहां दिनरात तीन तलाक़ पर हल्ला काटने वाला समाज और मुस्लिम महिलाओं को इंसाफ़ दिलाने वाले मीडिया हाउस ने अपने कानों में तेल डाल रखा हो! आज उसी देश के प्रधानमंत्री की सबका विश्वास वाली अपील को भी एक किनारे कूड़े के ढेर में डाल दिया!
Wednesday, 16 October 2019
Sir Syed Day 2019
"मुझे काफ़िर कहो या जो चाहे नाम दो कोई परवाह नहीं पर अपनी औलादों पर रहम खाओ, उन्हे स्कूल भेजो वरना पछताओगे''- सर सैयद अहमद खान
सर सैयद अहमद खान का मानना था कि हिंदुस्तान के मुसलमानों की ख़राब हालत की वजह सिर्फ उनकी अशिक्षा नहीं बल्कि यह भी है कि उनके पास नए ज़माने की तालीम नहीं. लिहाज़ा, वे इस दिशा में कुछ विशेष करने की लगन के साथ जुट गए. उनकी इस लगन का हासिल यह हुआ कि जहां भी उनका तबादला होता, वहां वे स्कूल खोल देते. मुरादाबाद में उन्होंने पहले मदरसा खोला, पर जब उन्हें लगा कि अंग्रेजी और विज्ञान पढ़े बिना काम नहीं चलेगा तो उन्होंने मुस्लिम बच्चों को मॉडर्न एजुकेशन देने के लिए से स्कूलों की स्थापना की.
फिर उनका तबादला अलीगढ़ हो गया. वहां जाकर उन्होंने साइंटिफ़िक सोसाइटी ऑफ़ अलीगढ़ की स्थापना की. हिंदुस्तान भर के मुस्लिम विद्वान अलीगढ़ आकर मजलिसें करने लगे और शहर में अदबी माहौल पनपने लगा. उन्होंने ‘तहज़ीब-उल-अखलाक़’ एक जर्नल की स्थापना की. इसने मुस्लिम समाज पर ख़ासा असर डाला और यह जदीद (आधुनिक) उर्दू साहित्य की नींव बना. मौलाना आज़ाद ने कभी कहा था कि उर्दू शायरी का जन्म लाहौर में हुआ, पर अलीगढ़ में इसे पनपने का माहौल मिला. इससे हम समझ सकते हैं कि सर सैयद अहमद खान का योगदान कितना बड़ा है.
सर सैयद अहमद खान ने अंग्रेज़ी की कई किताबों का उर्दू और फ़ारसी में तर्जुमा करवाया. सामाजिक कुरीतियों पर छेनी चलाई. वे काफ़िर कहलाये गए. उनके सिर पर फ़तवा जारी हुआ. लेकिन वो अपने मिशन से पीछे नहीं हटे.
#SirSyedDay2019
Tuesday, 1 October 2019
#150th Birth Anniversary of#Gandhi ji
"I learned from Hussain how to be wronged and be a winner, I learnt from Hussain how to attain victory while being oppressed".
#Mahatma_Gandhi
Further he said, "If India wants to be a successful country, it must follow in the footsteps of #Imam_Husain & if I had an army like 72 soldiers of Husain, I would have won freedom for India in 24 hours"..
150th #GandhiJayanti.
Friday, 27 September 2019
देश पर मर मिटने वाले भगत सिंह के जन्मदिन पर कुछ खास!!
देश पर मर मिटने वाले भगत सिंह के जन्मदिन पर कुछ खास!!
देश की सरकार भगत सिंह को शहीद नहीं मानती है, जबकि आजादी के लिए अपनी जान न्योछावर करने वाले भगत सिंह हर हिन्दुस्तानी के दिल में बसते हैं। भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उस समय उनके चाचा अजीत सिंह और श्वान सिंह भारत की आजादी में अपना सहयोग दे रहे थे। ये दोनों करतार सिंह सराभा द्वारा संचालित गदर पाटी के सदस्य थे। भगत सिंह पर इन दोनों का गहरा प्रभाव पड़ा था। इसलिए ये बचपन से ही अंग्रेजों से घृणा करने लगे थे। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्यधिक प्रभावित थे। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बाल मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने 1920 में भगत सिंह महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन में भाग लेने लगे, जिसमें गांधी जी विदेशी समानों का बहिष्कार कर रहे थे। 14 वर्ष की आयु में ही भगत सिंह ने सरकारी स्कूलों की पुस्तकें और कपड़े जला दिए। इसके बाद इनके पोस्टर गांवों में छपने लगे। भगत सिंह पहले महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन और भारतीय नेशनल कॉन्फ्रेंस के सदस्य थे। 1921 में जब चौरा-चौरा हत्याकांड के बाद गांधीजी ने किसानों का साथ नहीं दिया तो भगत सिंह पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा। उसके बाद चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में गठित हुई गदर दल के हिस्सा बन गए। उन्होंने चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। 9 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर से लखनऊ के लिए चली 8 नंबर डाउन पैसेंजर से काकोरी नामक छोटे से स्टेशन पर सरकारी खजाने को लूट लिया गया। यह घटना काकोरी कांड नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इस घटना को अंजाम भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और प्रमुख क्रांतिकारियों ने साथ मिलकर अंजाम दिया था। काकोरी कांड के बाद अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के क्रांतिकारियों की धरपकड़ तेज कर दी और जगह-जगह अपने एजेंट्स बहाल कर दिए। भगत सिंह और सुखदेव लाहौर पहुंच गए। वहां उनके चाचा सरदार किशन सिंह ने एक खटाल खोल दिया और कहा कि अब यहीं रहो और दूध का कारोबार करो। वे भगत सिंह की शादी कराना चाहते थे और एक बार लड़की वालों को भी लेकर पहुंचे थे। भगतसिंह कागज-पेंसिल ले दूध का हिसाब करते, पर कभी हिसाब सही मिलता नहीं। सुखदेव खुद ढेर सारा दूध पी जाते और दूसरों को भी मुफ्त पिलाते। भगत सिंह को फिल्में देखना और रसगुल्ले खाना काफी पसंद था। वे राजगुरु और यशपाल के साथ जब भी मौका मिलता था, फिल्म देखने चले जाते थे। चार्ली चैप्लिन की फिल्में बहुत पसंद थीं। इस पर चंद्रशेखर आजाद बहुत गुस्सा होते थे . भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अफसर जेपी सांडर्स को मारा था। इसमें चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली के सभागार में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। भगत सिंह क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशीरल विचारक, कलम के धनी, दार्शनिक, चिंतक, लेखक, पत्रकार और महान मनुष्य थे। उन्होंने 23 वर्ष की छोटी-सी आयु में फ्रांस, आयरलैंड और रूस की क्रांति का विषद अध्ययन किया था। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंगला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ चिंतक और विचारक भगतसिंह भारत में समाजवाद के पहले व्याख्याता थे। भगत सिंह अच्छे वक्ता, पाठक और लेखक भी थे। उन्होंने 'अकाली' और 'कीर्ति' दो अखबारों का संपादन भी किया। जेल में भगत सिंह ने करीब दो साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रांतिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उस दौरान उनके लिखे गए लेख व परिवार को लिखे गए पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूंजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था 'मैं नास्तिक क्यों हूं'? जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिए थे।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने से पहले वे 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे जो सिंध (वर्तमान पाकिस्तान का एक सूबा) के एक प्रकाशक भजन लाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस, सिंध से छापी थी..
पाकिस्तान में शहीद भगत सिंह के नाम पर चौराहे का नाम रखे जाने पर खूब बवाल मचा था। लाहौर प्रशासन ने ऐलान किया था कि मशहूर शादमान चौक का नाम बदलकर भगत सिंह चौक किया जाएगा। फैसले के बाद प्रशासन को चौतरफा विरोध झेलना पड़ा था. देश के लिए मर मिटने वाले देशभक्तों में भगत सिंह का नाम भुलाया नहीं जा सकता। देश के प्रति उनका प्रेम, दीवानगी और मर मिटने का भाव, उनके शेर-ओ-शायरी और कविताओं में साफ दिखाई देता है, जो आज भी युवाओं में आज भी जोश भरने का काम करता है।
सीनें में जुनूं, आंखों में देशभक्ति की चमक रखता हूं,
दुश्मन की सांसें थम जाए, आवाज में वो धमक रखता हूं.
लिख रहा हूं मैं अंजाम, जिसका कल आगाज़ आएगा.
मेरे लहू का हर एक कतरा, इंकलाब लाएगा.
मैं रहूं या न रहूं पर, ये वादा है मेरा तुझसे.
मेरे बाद वतन पर मरने वालों का सैलाब आएगा.
#BhagatSingh
Thursday, 26 September 2019
तीन तलाक बिल मुसलमान, शरियत और मुस्लिम औरतों के हक
तीन तलाक बिल मुसलमान, शरियत और मुस्लिम औरतों के हक में नहीं बल्कि मर्द और औरत के खिलाफ़ हैं।
कुछ मेरे सवाल???
मर्द ने गुस्से में आकर तलाक बोल दिया और औरत ने भी गुस्से में पुलिस में शिकायत कर दी.
पुलिस ने मर्द को गैर जमानती अपराध में 3 साल के लिए जेल डाल दिया.
अब औरत की जिम्मेदारी है कि वह साबित करें कि मर्द ने तलाक बोला है जो कि बहुत मुश्किल है! मान लीजिए साबित हो गया तो मर्द को 3 साल कैद की सजा। अब औरत और बच्चों को कोन देखेगा? औरत अब दुसरी शादी भी नहीं कर सकती क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार उनका तलाक नहीं हुआ.
और सबसे जो बड़ा मसला है अब उस औरत के सास ससुर, देवर, जेठ, ननद उसको उसी घर में रखेंगे क्या जिनके बेटे को उसने जेल में बंद करा दिया?
अब मर्द क्या उस औरत को अपनी बीवी मानेगा जिसने उसे 3 साल जेल की सजा दिलवाई? किसी भी हालत में शायद नहीं.
अब वो मर्द उसे कानूनी तौर पर तलाक देगा।
इस सब प्रक्रिया में जो उनमें आपसी सुलह की गुंजाइश थी वह भी खत्म हो जाएगी !
इस तरह मियां बीवी और उनके बच्चों की जिन्दगी बर्बाद हो जाएगी !
जो पार्टी हम मुसलमानों को गद्दार, देशद्रोही, कटवा, मुल्ला, आतंकवादी, पाकिस्तानी से सम्बोधित करती हैं जो गाय, बीफ और लव जिहाद के नाम पर मुसलमानों का कत्ल करती हैं, क्या वो कभी मुसलमानों का भला सोच सकती हैं??
भाजपा चाहती है दोनों अलग होंगे, पति जेल में मरेगा और पत्नी दर-दर भटक कर कोई गन्दा काम कर लेगी
जो मुस्लिमों को बर्बादी कि तरफ लें जायेगी।
#TeenTalak
#TriplaTalaq