Friday, 23 February 2024

कभी तो आगाज़-ए-बाब होगा

किताब कब तक रहेगी सादा, कभी तो आग़ाज़-ए-बाब होगा,  जिन्होंने बस्ती उजाड़ डाली, कभी तो उनका हिसाब होगा।      शहर कि खुशियाँ मानाने वालों, शहर के तेवर बता रहे हैं,        अभी तो इतनी घुटन बढ़ेगी कि साँस लेना अज़ाब होगा।        वो दिन गए जब कि हर सितम को, अदा-ए-महबूब कह के चुप थे,                 
उठेगी हम पर जो ईंट कोई तो पथ्थर उसका जवाब होगा।        सुकूत-ए-सेहरा में बसने वालों ज़रा रूतों का मिज़ाज समझो,    जो आज का दिन सुकूँ से गुज़रा तो कल का मौसम ख़राब होगा।                                    
नहीं कि ये सिर्फ शायरी है, ग़ज़ल में तारीख़-ए-बेहिसी है,      जो आज शेरों में कह दिया है वो कल शरीक-ए-निसाब होगा।      

Saturday, 10 June 2023

राम बनवास से जब लौटकर घर में आये

राम बनवास से जब लौटकर घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये

धर्म क्या उनका है, क्या जात है ये जानता कौन
घर ना जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त, तुम्हारे ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आये

पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे
कैफ़ी आज़मी

Wednesday, 1 March 2023

इस्लाम में जातिवाद नहीं है लेकिन मुसलमानों में तो है❓❓❓

इस्लाम में जातिवाद नहीं है लेकिन मुसलमानो में तो है । 

इस्लाम में ब्याज नहीं है लेकिन मुसलमानो में तो है । 

इस्लाम में शराब नहीं है लेकिन मुसलमानो में तो है । 

इस्लाम में बर्थ डे पार्टी नही लेकिन मुसलमानो में तो है ।

इस्लाम मे रस्मो रिवाज नही लेकिन मुसलमानो में तो है। 

इस्लाम मे बुग्ज हसद जलन नफरत घमंड नहीं लेकिन मुसलमानो में तो है। 

इस्लाम मे लालच झूठ मक्कारी फरेबी नहीं लेकिन मुसलमानो में तो है। 

इस्लाम मे ऊँच-नीच, छुआ छूत अमीरी गरीबी गोरा काला में फर्क नहीं लेकिन मुसलमानो में तो है। 

इस्लाम मे धोखेबाजी चालबाज़ी खुदगर्जी मतलबी नहीं लेकिन मुसलमानो में तो है। 

इस्लाम मे हरामकारी जिना कारी वहशी नही लेकिन मुसलमानो में तो है। 

इस्लाम मे एहसान फरामोशी वादा खिलाफी नही लेकिन मुसलमानो में तो है। 

इस्लाम मे रियाकारी तक़ब्बुर फैशनेबल नही लेकिन मुसलमानो में तो है।

इस्लाम में बाप की विरासत में बेटी का हिस्सा है , पति की विरासत में पत्नी का हिस्सा है लेकिन मुसलमानो में तो नहीं।  

कब तक इस्लाम की आड़ में अपने पाप छिपाते रहोगे ?? हक़ीक़त का सामना कीजिए , 

सिर्फ सुअर का गोश्त ना खाने के अलावा आप सारे वो काम कर रहे हो जो आपके मज़हब में मना है ।

जो हमारे इस्लाम मे नहीं है लेकिन मुसलमानो में तो है। 

आप अपने लिए ना सही उस रब और उसके रसूल के लिए तो अमल करो सही दीन और इस्लाम पे अमल कर के सच्चे पक्के मुसलमान ईमानदार बन कर सबूत दो कल हम सब को अपने करतूत को सबके सामने पेश करना होगा आज हम जिससे छुप छूपा कर गलती पर गलती कर रहे हैं और हम जरा सा भी डर खौफ नही होता 

आज हम मुसलमानों के वो हाल हो गए हैं कि घर में मैय्यत हो जाए तो जनाजे के नमाज के लिए गैरो को ढुंढते है 

जरा सोचो हम अपने माँ बाप के इंतेकाल के बाद उनके मगफेरत कि दुआ भी करने लायक नही है 

अल्लाह तआला हम तमाम लोगों को अल्लाह और उसके रसूल के मुताबिक चलने का तौफिक दे आमीन❤️❤️

Tuesday, 4 January 2022

🌐 *तलाक हलाला और खुला की हकीकत* 🌐

🌐 *तलाक हलाला और खुला की हकीकत* 🌐

*____पोस्ट लंबी है मुकम्मल पढ़ें____*

इसके  बारे में सभी मुस्लिम मर्द औरत को जरूर मालूम होनी चाहिए ।
क्योंकि आज समाज़ में 
तलाक़ हलाला के बारे में बहुत बहस होती है जिसे अपने धर्म के बारे में मालूम नही होती उसे शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है ।

यूं तो तलाक़ कोई अच्छी चीज़ नहीं है और सभी लोग इसको ना पसंद करते हैं इस्लाम में भी यह एक बुरी बात समझी जाती है लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि तलाक़ का हक ही इंसानों से छीन लिया जाए,

पति पत्नी में अगर किसी तरह भी निबाह नहीं हो पा रहा है तो अपनी ज़िदगी जहन्नम बनाने से या सुसाइट करने से बेहतर है कि वो अलग हो कर अपनी ज़िन्दगी का सफ़र अपनी मर्ज़ी से पूरा करें जो कि इंसान होने के नाते उनका हक है, इसी लिए दुनियां भर के कानून में तलाक़ की गुंजाइश मौजूद है.
और इसी लिए पैगम्बरों के दीन (धर्म) में भी तलाक़ की गुंजाइश हमेशा से रही है,..

*इस्लाम में महिलाओं की आज़ादी*

★इस्लाम धर्म मे शादी को पुरुष-स्त्री के बीच एक विधिवत करार (कॉन्ट्रैक्ट) के रूप में होता है जिसे *निकाह* कहते है !

कॉन्ट्रैक्ट यानी इसके चलते दोनों ही पक्षों पति पत्नी को करार ( कॉन्ट्रैक्ट) रद्द करने का भी अधिकार प्राप्त है ! और *इस्लाम मे इसी आज़ादी के वजह से गैर मुस्लिम महिलाएँ भी इस्लाम धर्म अपना कर मुस्लिम शरीयत के मुताबिक निकाह करती है ताकि बाद में कुछ समस्या आने पर अपनी आज़ादी से तलाक़ लेकर अपनी मर्ज़ी से रह सके* ! यहां तलाक के फैसले के साथ कोई मूल्य, परिभाषा या वैल्यू जजमेंट नहीं जुड़ा है। लेकिन हमारा समाज इसके साथ अच्छाई या बुराई का मूल्य जोड़ देता है।  

इस्लाम धर्म मे शादी के लिए लड़का लड़की का बालिग या होशमंद होना भी जरूरी है। वही व्यक्ति बालिग है जो एक परिपक्व दिमाग और पूर्ण विकसित शरीर रखता हो, जिसकी स्वतंत्र मर्जी और नामर्जी चलती हो। यहां इस्लाम मे बाल विवाह की कोई गुंजाइश नहीं है। और जाहिर है, जो लड़कीं करार (कॉन्ट्रैक्ट) करने की क्षमता रखती हो, वह इस समझौते को रद्द करने के लिए भी सक्षम होती है।

*तलाक़_की_हक़ीक़त* 

● दीने इब्राहीम की रिवायात के मुताबिक अरब जाहिलियत के दौर में भी तलाक़ से अनजान नहीं थे, उनका इतिहास बताता है कि तलाक़ का कानून उनके यहाँ भी लगभग वही था जो अब इस्लाम में है लेकिन कुछ बिदअतें उन्होंने इसमें भी दाखिल कर दी थी.

किसी जोड़े में तलाक की नौबत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि जो रिश्ते की डोर एक बार बन्ध गई है उसे मुमकिन हद तक टूटने से बचाया जाए,
जब किसी पति-पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे तो अल्लाह ने कुरआन में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायत दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें इसका तरीका कुरआन ने यह बतलाया है कि – “एक फैसला करने वाला शौहर के खानदान में से मुकर्रर करें और एक फैसला करने वाला बीवी के खानदान में से चुने और वो दोनों जज मिल कर उनमे सुलह कराने की कोशिश करें, इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति पत्नी नहीं सुलझा सके वो खानदान के बुज़ुर्ग और दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ जाए”..

♥ कुरआन ने इसे कुछ यूं बयान किया है – “और अगर तुम्हे शौहर बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो, अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की खबर रखने वाला है” – 
📕 सूरह निसा आयत- 35

इसके बावजूद भी अगर शौहर और बीवी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक का फैसला कर ही लिया है तो शौहर बीवी के खास दिनों (Menstruation) के आने का इन्तिज़ार करे, और खास दिनों के गुज़र जाने के बाद जब बीवी पाक़ हो जाए तो बिना हम बिस्तर हुए कम से कम दो जिम्मेदार लोगों को गवाह बना कर उनके सामने बीवी को एक तलाक दे, 
यानि शौहर बीवी से सिर्फ इतना कहे कि ”मैं तुम्हे तलाक देता हूँ”.

तलाक हर हाल में एक ही दी जाएगी दो या तीन या सौ नहीं, जो लोग जिहालत की हदें पार करते हुए दो तीन या हज़ार तलाक बोल देते हैं यह इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ अमल है और बहुत बड़ा गुनाह है अल्लाह के रसूल सल्लाहू अलैहि वसल्लम के फरमान के मुताबिक जो ऐसा बोलता है वो इस्लामी शरीयत और कुरआन का मज़ाक उड़ा रहा होता है.

इस एक तलाक के बाद बीवी 3 महीने यानि 3 तीन हैज़ (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने) तक शौहर ही के घर रहेगी और उसका खर्च भी शौहर ही के जिम्मे रहेगा लेकिन उनके बिस्तर अलग रहेंगे, कुरआन ने सूरह तलाक में हुक्म फ़रमाया है कि इद्दत पूरी होने से पहले ना तो बीवी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो खुद निकले, इसकी वजह कुरआन ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि इद्दत के दौरान शौहर बीवी में सुलह हो जाए और वो तलाक का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं.

अक्ल की रौशनी से अगर इस हुक्म पर गौर किया जाए तो मालूम होगा कि इसमें बड़ी अच्छी हिकमत है, हर मुआशरे (समाज) में बीच में आज भड़काने वाले लोग मौजूद होते ही हैं, अगर बीवी तलाक मिलते ही अपनी माँ के घर चली जाए तो ऐसे लोगों को दोनों तरफ कान भरने का मौका मिल जाएगा, इसलिए यह ज़रूरी
है कि बीवी इद्दत का वक़्त शौहर ही के घर गुज़ारे.

फिर अगर शौहर बीवी में इद्दत के दौरान सुलह हो जाए तो फिरसे वो दोनों बिना निकाह किये शौहर और बीवी की हैसियत से रह सकते हैं इसके लिए उन्हें सिर्फ इतना करना होगा कि जिन गवाहों के सामने तलाक दी थी उनको खबर करदें कि हम ने अपना फैसला बदल लिया है, कानून में इसे ही *”रुजू”* करना कहते हैं और यह ज़िन्दगी में दो बार किया जा सकता है इससे ज्यादा नहीं. 
देखे क़ुरआन
📕 सूरह बकरह आयत- 229

शौहर बीवी रुजू ना करे तो इद्दत के पूरा होने पर शौहर बीवी का रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, लिहाज़ा कुरआन ने यह हिदायत फरमाई है कि इद्दत अगर पूरी होने वाली है तो शौहर को यह फैसला कर लेना चाहिए कि उसे बीवी को रोकना है या रुखसत करना है, दोनों ही सूरतों में अल्लाह का हुक्म है कि मामला भले तरीके से किया जाए, 
📕 सूरह बकरह में हिदायत फरमाई है कि अगर बीवी को रोकने का फैसला किया है तो यह रोकना वीबी को परेशान करने के लिए हरगिज़ नहीं होना चाहिए बल्कि सिर्फ भलाई के लिए ही रोका जाए.

♥ अल्लाह त'आला कुरआन में फरमाता है – “और जब तुम औरतों को तलाक दो और वो अपनी इद्दत के खात्मे पर पहुँच जाएँ तो या तो उन्हें भले तरीक़े से रोक लो या भले तरीक़े से रुखसत कर दो, और उन्हें नुक्सान पहुँचाने के इरादे से ना रोको के उनपर ज़ुल्म करो, और याद रखो के जो कोई ऐसा करेगा वो दर हकीकत अपने ही ऊपर ज़ुल्म ढाएगा, और अल्लाह की आयतों को मज़ाक ना बनाओ और अपने ऊपर अल्लाह की नेमतों को याद रखो और उस कानून और हिकमत को याद रखो जो अल्लाह ने उतारी है जिसकी वो तुम्हे नसीहत करता है, और अल्लाह से डरते रहो और ध्यान रहे के अल्लाह हर चीज़ से वाकिफ है” – 
📕 सूरह बक़रह आयत -231

लेकिन अगर उन्होंने इद्दत के दौरान रुजू नहीं किया और इद्दत का वक़्त ख़त्म हो गया तो अब उनका रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, अब उन्हें जुदा होना है.
इस मौके पर कुरआन ने कम से कम दो जगह
📕 सूरह बक़रह आयत 229 और 
📕 सूरह निसा आयत 20 में 
इस बात पर बहुत ज़ोर दिया है कि मर्द ने जो कुछ बीवी को पहले गहने, कीमती सामान, रूपये या कोई जाएदाद तोहफे के तौर पर दे रखी थी उसका वापस लेना शौहर के लिए बिल्कुल जायज़ नहीं है वो सब माल जो बीवी को तलाक से पहले दिया था वो अब भी बीवी का ही रहेगा और वो उस माल को अपने साथ लेकर ही घर से जाएगी, शोहर के लिए वो माल वापस मांगना या लेना या बीवी पर माल वापस करने के लिए किसी तरह का दबाव बनाना बिल्कुल जायज़ नहीं है.

(नोट– अगर बीवी ने खुद तलाक मांगी थी जबकि शौहर उसके सारे हक सही से अदा कर रहा था या बीवी खुली बदकारी पर उतर आई थी जिसके बाद उसको बीवी बनाए रखना मुमकिन नहीं रहा था तो महर के अलावा उसको दिए हुए माल में से कुछ को वापस मांगना या लेना शौहर के लिए जायज़ है.)
अब इसके बाद बीवी आज़ाद है वो चाहे जहाँ जाए और जिससे चाहे शादी करे, अब पहले शौहर का उस पर कोई हक बाकि नहीं रहा.

इसके बाद तलाक देने वाला शौहर और बीवी जब कभी ज़िन्दगी में दोबारा शादी करना चाहें तो वो कर सकते हैं इसके लिए उन्हें आम निकाह की तरह ही फिर से निकाह करना होगा और शौहर को फिर से बीवी को महर लेने होंगे.

● अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार निकाह करने के बाद कुछ समय के बाद उनमे फिर से झगड़ा हो जाए और उनमे फिर से तलाक हो जाए तो फिर से वही पूरा प्रोसेस दोहराना होगा जो  ऊपर  में लिखा है,

★ अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार भी तलाक के बाद वो दोनों आपस में शादी करना चाहें तो शरीयत में तीसरी बार भी उन्हें निकाह करने की इजाज़त है. उन्हें आम निकाह की तरह ही फिर से निकाह करना होगा और शौहर को महर देने होंगे और बीवी को महर लेने होंगे.

★ लेकिन 
*अब अगर उनको तलाक हुई तो यह तीसरी तलाक होगी जिसके बाद ना तो रुजू कर सकते हैं और ना ही आपस में फिर से निकाह किया जा सकता है. !*

★अब उस मर्द के लिए वो औरत हराम हो जाएगी ,, 
अब सोचने की बात ये है की
*3 बार निकाह करने के बाद भी अगर कोई मर्द 3 बार तलाक़ दे दे ,*
तो 
*अब उस औरत मर्द के लिए सोचने की बात है कि बार बार बेईज़्ज़ती होने के बाद फिर से उसी मर्द के साथ वही औरत कभी निकाह करना नही चाहेगी*  ,, 
*क्योकि जितना मोहलत इस्लाम मे रिश्ता निभाने के लिए दिया गया था ,, उस मोहलत में अगर नही निभा पाई तो फिर से निकाह के बाद निभा पाना नामुमकिन है !*

 ★ फिर भी इस्लाम मे एक गुंजाइश है !! 

लेकिन जो प्रोसेस है हराम निकाह को हलाल करने का वो औरत कभी नही बार बार बेइज़्ज़ती होने के बाद पहले शौहर से निकाह करना चाहेगी ।
👇
*लेकिन ,,,  लेकिन,,, लेकिन,,,* 
अपनी मर्ज़ी से नही ये एक इत्तेफ़ाक़ से होगा तभी वो औरत उसके पहले शौहर के लिए हलाल होगा , वरना प्रीप्लान हराम होगा , इसका भी तरीका ये है
जिसे हलाला नाम दिया गया है 👇!! 

★ *हलाला:_______*
इसके बारे में आजकल गलत प्रोपेगेंडा किया जाता है ,, जो नासमझी के वजह से मुस्लिम समाज मे गलत तरीका से किया जाता है । जिसके वजह से आज पूरे इस्लाम को बदनाम किया जाता है ।

●अब चौथी बार उनकी आपस में निकाह करने की कोई गुंजाइश नहीं लेकिन सिर्फ ऐसे कि अपनी आज़ाद मर्ज़ी से वो औरत किसी दुसरे मर्द से शादी करे और इत्तिफाक़ से उनका भी निभा ना हो सके और वो दूसरा शोहर भी उसे तलाक देदे या मर जाए तो ही वो औरत सारी इद्दत पूरा करने के बाद पहले मर्द से निकाह कर सकती है, इसी को कानून में *”हलाला”* कहते हैं. !
लेकिन याद रहे यह इत्तिफ़ाक से हो तो जायज़ है जान बूझ कर या प्लान बना कर किसी और मर्द से शादी करना और फिर उससे सिर्फ इस लिए तलाक लेना ताकि पहले शौहर से निकाह जायज़ हो सके यह साजिश सरासर नाजायज़ है और ये हलाला नही हराम है इस्लाम मे इसका कोई गुंजाइश नही है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसी साजिश करने वालों पर लानत फरमाई है.!
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इस्लाम मे मर्द के लिए इन रिश्तों के साथ निकाह जाएज़ नही 👇
उन औरतों से निकाह न करो जिनसे तुम्हारे बापो ने निकाह किया ... हराम की गई है तुम पर तुम्हारी माएँ 
तुम्हारी लड़कींयां 
तुम्हारी बहने 
तुम्हारी फुफियाँ 
तुम्हारी खालायें 
भाई की लड़कियाँ 
बहन की लड़कियां 
तुम्हारी वह माएँ जिन्होंने तुम्हे दूध पिलाया 
तुम्हारी दूध शरीक बहने 
तुम्हारी सास 
तुम्हारी परवरिश करदा लड़कियाँ जो तुम्हारी गोद में है 
तुम्हारी उन औरतों से जिनहे तुम दख़ल कर चुके हो हाँ अगर तुमने उन से जमा न किया हो तो तुम पर गुनाह नही ! 
तुम्हारी सगे बेटों की बेटियाँ 
तुम्हारा दो बहनों को जमा करना  
और शौहर वाली औरतें 
इसके अलावा बाप की नसब से और माँ की नसब के वजह से 7 रिश्ते और हराम है !
📕 सूरह निशा आयत-22,23,24

● *इस्लाम मे मर्द से छुटकारा के लिए औऱत  को हक़ दिया गया है  जिसे खुला कहते है*
★ *खुला:_________*
खुला के लिए 3 शर्त है अगर वो शर्त लागू होता है तो बीवी अपने शौहर से खुला ले सकती है 
◆शौहर अपनी बीवी को मारता पिटता हो
◆शौहर अपनी बीवी को खर्चा नही देता हो 
◆शौहर बदचलन आवारा घर नही संभालने वाला हो ,
तो ऐसी हालत में बीवी का हक़ है कि वो खुला ले सकती है 
अगर सिर्फ बीवी तलाक चाहे तो उसे शौहर से तलाक मांगना होगी, अगर शौहर नेक इंसान होगा तो ज़ाहिर है वो बीवी को समझाने की कोशिश करेगा और फिर उसे एक तलाक दे देगा, लेकिन अगर शौहर मांगने के बावजूद भी तलाक नहीं देता तो बीवी के लिए इस्लाम में यह आसानी रखी गई है कि वो शहर काज़ी (जज) के पास जाए और उससे शौहर से तलाक दिलवाने के लिए कहे, इस्लाम ने काज़ी को यह हक़ दे रखा है कि वो उनका रिश्ता ख़त्म करने का ऐलान कर दे, जिससे उनकी तलाक हो जाएगी, कानून में इसे *”खुला”* कहा जाता है.
*इस्लाम में इसी तलाक़ और खुला के वजह से औरत को आजादी मिलती है*,, और 
*गैर मुस्लिम औरते आज़ाद ख्याल की इस्लाम को पसंद करती है !!*
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●यही तलाक का सही तरीका है लेकिन अफ़सोस की बात है कि हमारे समाज मे इस तरीके की खिलाफ वर्जी भी होती है और कुछ लोग बिना सोचे समझे इस्लाम के खिलाफ तरीके से तलाक देते हैं जिससे खुद भी परेशानी उठाते हैं और इस्लाम की भी बदनामी होती है.

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*फ़ज़र के नमाज़ के वक़्त ही अगर जोहर असर मगरिब की नमाज़ एक साथ अदा कि जाए तो क्या जोहर असर मग़रिब की नमाज़ हो जाएगी ??*
नही!
क्योंकि सभी नमाज़ के लिए अलग अलग वक़्त है 

*इसलिए एक साथ तीन तलाक़ गलत तरीके से तलाक देने पर रुके* 
और
*हलाला जैसी समाज मे गंदी रश्म पर अमल करने से रुके इस्लाम मे ये जायज नही है।*

 और *क़ुरआन के मुताबिक एक बार मे एक तलाक़ देने पर अमल करें।*

📕 क़ुरआन में तलाक के बारे में सूरह बक़रह की आयत 228 से 232 तक मे बता दि गई है जिसके तफ़्सीर पढ़कर लिखी गई है ।
____पोस्ट समझ में आ गए तो औरो को भी शेयर करें ।
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Tuesday, 19 October 2021

कानून सबके लिए बराबर नहीं है

ये है मेरा इंडिया
बुलंदशहर के अतिरिक्त सत्र न्यायालय के न्यायाधीश जज राजेश्वर शुक्ल ने एक 70 साला माँ को सिर्फ इसलिए उम्रकैद की सज़ा सुनाई कि एक आदमी उसके घर में उसकी बेटी से रेप करने की कोशिश कर रहा था जिसे बूढ़ी मां ने बेटी की इज़्ज़त बचाने के लिए कुल्हाड़ी से पाँच बार हमला कर दिया जिससे उसकी जान चली गई। जज साहब का कहना है कि सिर्फ एक बार ही वार करना चाहिए था जिससे वह वहाँ से भाग जाता। 
भारत में बलात्कारियों के हौसले ऐसे ही नहीं बुलंद हैं, उनको मालूम है कि उनको बचाने के लिए अदालत में फैसले बदल जाया करते हैं।
#StopRape

Sunday, 17 October 2021

Sir Syed and Aligarh Movement

As we know that, after the war of independence the condition of the Muslims of India were very miserable as the British fell more on the Muslims than on Hindus.  They considered that Muslims were responsible for all the wrongs and the war held just because of their harsh and rude behavior. After 1857, the Muslims emerged as a backward nation; they were illiterate and hopelessly ignorant in every walk of life. They were deprived of their basic rights and were neglected in every sphere of life. Nevertheless, they were economically, politically, socially and to be more exact religiously made the subject of ruthless punishment. They were helpless before the British and their combine lobby with Hindus; so, in these conditions they neither trusted Hindus nor British, who spared no effort to tortured Muslims.

In such conditions, Sir Syed Ahmad Khan came forward and tried to help the Muslims come out from such deplorable and miserable conditions. He guided the Muslims towards the right path and attempted to draw out the Muslims from such helpless condition. He started a movement in order to give respectable position to Muslims in society as they had in past, this movement is known as Aligarh Movement. The main focus of the Aligarh movement was: Modern western education for the Muslims to compete with others.
Sir Syed realized that this miserable and deplorable condition of Muslims was due to the lack of modern education. He believed that the cure of every problem of Muslims was the modern education. Therefore, he commenced an educational program in order to uplift the deprived and disappointed Muslims, who had lost their past glory. He took concrete steps for his education plan. Thus, in 1859, Sir Syed Ahmad Khan set up a school for Muslims in Muradabad where English, Persian, Islamiat, Arabic, Urdu were compulsory subjects. In 1862, Sir Syed was transferred from Muradabad to Ghazipur where he established another school for Muslims, which was known as Madrass Ghazipur. Here, also the English, Arabic, Persian, Urdu and Islamyat were compulsory subjects.
In 1864, Sir Syed Ahmad Khan laid the foundation of a scientific society at Ghazipur. The purpose of this society was to translate the English books into Urdu language. But, later on, in 1866, after his transfer to Aligarh, the main office of the scientific society was also transferred to Aligarh. In 1866, the scientific society issued a journal named as Aligarh Institute Gazette. This journal was published both in Urdu and English languages. The aim of this journal was to wash away the misconception between Muslims and British government and brought them close to each other.
In order to closely watch the educational system of England, Sir Syed Ahmad Khan accompanied his son Syed Mehmud, visited England in 1869 and stayed there for seventeen months studying English educational institutions like Oxford and Cambridge University. Later, after his return to India, he set up a committee known as “Committee Striving for Educational Progress of Muslims”. Under this committee another committee was established named as “Fund Committee for the establishment of a Muslim College” and Sir Syed was selected the secretary of the both committees. For this purpose, Sir Syed toured across the country and collected funds for the establishment of college. The committee decided first for the forming of school as a model to the people and later to found the college. Hence, in 1875, Sir Syed established Mohammedan Anglo Oriental School at Aligarh. In 1877, the school was upgraded to the level of college which was inaugurated by Lord Lytton. The main characteristic of this college was that it offered both Western and Eastern educations. Later on, this college was raised to the level of university, after the death of Sir Syed in 1920.
In 1886, Sir Syed set up an organization which is known as Mohammedan Educational Conference, which presented a twelve point programme in western and religious education in English and other languages. It aim was to convey the message of education to the Muslim masses. The Conference held its sessions at different towns of the country to know about the educational problems and then tried to solve them. The conference in its meeting discussed the modern techniques for the development and improvement of the standard of the education.
In 1866, Sir Syed established British India Association at Aligarh. The main purpose of this organization was to express the grievances and point of view of Indians to the British parliament. He also wrote “Loyal Muhammadans of India” in which he recorded a detailed account of the loyal services of the Muslims which they rendered to the British rulers. In 1870, Sir Syed, after his return from England, setup an organization known as “Anjuman-i-Taraqi-i-Muslamanan-i-Hind” in order to impart modern education to the Muslims of India.
Sir Syed wrote the philosophical commentary on Bible named as “Tabaeen-al-Kalam.” In this commentary Sir Syed draw out the similarities found between Islam and Chirstianity. He also wrote “Essay on the life of Muhammad” on the response to “Life of Muhammad”, written by William Muir, in which he had criticized the Holy Prophet. Sir Syed also wrote “Anjuman-i-Tariki-i-Urdu” for the protection of Urdu. Sir Syed published another influential magazine named as “Tahzib-ul-Akhlaaq” in which he discussed the Muslim society by criticizing the conservative way of living and emphasized on the new modern way of life.
Sir Syed, although, was the first Muslim member of Central Legislative Council, but he advised the Muslims to remain apart from politics unless and until they would get education. He believed that the cure of Muslim problems is only education and unless and until Muslims get education, they will remain backward in every sphere of life. Thus, Sir Syed did his best, through the Aligarh movement, for the Muslim cause, and took the support of British by showing loyalty to them and also aloof the Muslims from the Indian National Congress.
#SirSyedAhmedKhan