मेरी बर्बादियों के हमनशीनों
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
अलीगढ़ में मजाज़ की आत्मा बसती थी. कहा जाता है कि मजाज़ और अलीगढ़ दोनों एक दूसरे के पूरक थे, एक दूसरे के लिए बने थे. अपने स्कूली जीवन में ही मजाज़ अपनी शायरी और अपने व्यक्तित्व को लेकर इतने मकबूल हो गए थे कि पूरी यूनिवर्सिटी उनकी अशआर की कायल हो गई थी. अलीगढ़ की नुमाईश , यूनीवर्सिटी, वहां की रंगीनियों आदि को लेकर मजाज़ ने काफी लिखा-पढ़ा. मजाज़ की शायरी के दो रंग है-पहले रंग में वे इश्किया गज़लकार नजर आते हैं वहीं दूसरा रंग उनके इन्कलाब़ी शायर होने का मुज़ाहिरा करता है. अलीगढ़ में ही उनके कृतित्व को एक नया विस्तार मिला. वे प्रगतिशील लेखक समुदाय से जुड़ गये. ‘मजदूरों का गीत’ हो या ‘इंकलाब जिंदाबाद’ मजाज ने अपनी बात बहुत प्रभावशाली तरीके से कही.
असरारुल हक़ 'मजाज़'
(आज यौम-ए-विलादत है)
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