Monday, 21 October 2019

#119th #BirthAnniversary #AshfaqullahKhan

#119th #BirthAnniversary #AshfaqullahKhan
भारत के इतिहास में कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़े में लिए जाते हैं जैसे भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और राजगुरू. ऐसा ही एक और बहुत मशहूर जोड़ा है रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक़ उल्ला खां का. इसका रीज़न सिर्फ ये नहीं कि काकोरी कांड में यही दोनों मेन आरोपी थे. बल्कि इसका रीज़न था कि दोनों एक-दूसरे को जान से भी ज़्यादा चाहते थे. दोनों ने जान दे दी, पर एक-दूसरे को कभी धोखा नहीं दिया. 
रामप्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे पंडित जुड़ा था. वहीं अशफाक एक कट्टर मुस्लिम थे, वो भी पंजवक्ता नमाज़ी थे. पर इस बात का कोई फर्क दोनों पर नहीं पड़ता था. क्योंकि दोनों का मक़सद एक ही था "आजाद मुल्क़, वो भी मज़हब या किसी और आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नहीं, बल्कि पूरा का पूरा". इनकी दोस्ती की मिसालें आज भी दी जाती हैं.
धीरे धीरे वे राम प्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आये और बाद में उनके दल के भरोसेमंद साथी बन गए. इस तरह से वे क्रांतिकारी जीवन में आ गए. वे हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे. उनके लिये मंदिर और मस्जिद एक समान थे. एक बार शाहजहाँपुर में हिन्दू और मुसलमान आपस में झगड़ गए और मारपीट शुरू हो गयी. उस समय अशफाक़ बिस्मिल के साथ आर्य समाज मन्दिर में बैठे हुए थे. कुछ मुसलमान मंदिर पर आक्रमण करने की फ़िराक में थे. अशफाक़ ने फ़ौरन पिस्तौल निकाल लिया और गरजते हुए बोले – "मैं भी कट्टर मुस्लमान हूँ लेकिन इस मन्दिर की एक-एक ईट मुझे प्राणों से प्यारी हैं. मेरे लिये मंदिर और मस्जिद की प्रतिष्ठा बराबर है. अगर किसी ने भी इस मंदिर की तरफ़ नज़र उठाई तो मेरी गोली का निशाना बनेगा. अगर तुम्हें लड़ना है तो बाहर सड़क पर जाकर खूब लड़ो". यह सुनकर सभी के होश उड़ गए और किसी का साहस नहीं हुआ कि उस मंदिर पर हमला करे.

राम प्रसाद बिस्मिल से दोस्ती :
चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने अपना असयोग आंदोलन वापस ले लिया था, तब हज़ारों की संख्या में युवा खुद को धोखे का शिकार समझ रहे थे. अशफ़ाक उल्ला खां उन्हीं में से एक थे. उन्हें लगा अब जल्द से जल्द भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति मिलनी चाहिए. इस उद्देश्य के साथ वह शाहजहांपुर के प्रतिष्ठित और समर्पित क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के साथ जुड़ गए. आर्य समाज के एक सक्रिय सदस्य और समर्पित हिंदू राम प्रसाद बिस्मिल अन्य धर्मों के लोगों को भी बराबर सम्मान देते थे. वहीं दूसरी ओर एक कट्टर मुसलमान परिवार से संबंधित अशफ़ाक़ उल्ला खां भी ऐसे ही स्वभाव वाले थे. धर्मों में भिन्नता होने के बावजूद दोनों का मक़सद सिर्फ देश को स्वराज दिलवाना ही था. यही कारण है कि जल्द ही अशफ़ाक़ राम प्रसाद बिस्मिल के विश्वासपात्र बन गए. धीरे-धीरे इनकी दोस्ती भी गहरी होती गई.
एक बार की बात है, तस्द्दुक़ हुसैन उस वक्त दिल्ली के CID के Dy. SP हुआ करते थे. उन्होंने अशफाक़ और बिस्मिल की दोस्ती को हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेलकर तोड़ने की भरसक कोशिश की और बोले देखो अशफ़ाक़ हम तुम दोनों मुसलमान हैं और बिस्मिल आर्य समाजी काफ़िर है, तुम क्रांतिकारियों के बारे में सब कुछ बता दो हम तुम्हें इज़्ज़त देंगे, शोहरत देंगे", ये सुनकर अशफ़ाक़ का चेहरा गुस्से से तमतमा गया और बोले कि " पण्डितजी, "बिस्मिल" सच्चे भारतीय हैं और आपने उन्हें काफ़िर बोला, दूर चले जाइए मेरी नज़रों से", ऐसे में उन्होंने एक रोज़ अशफाक़ का बिस्मिल पर विश्वास तोड़ने के लिए झूठ बोला और कहा कि "बिस्मिल ने सच बोल दिया है और सरकारी गवाह बन रहा है". तब अशफाक ने Dy. SP को जवाब दिया, "खान साहब! पहली बात, मैं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे अच्छी तरह जानता हूं. और जैसा आप कह रहे हैं, वो वैसे आदमी नहीं हैं. दूसरी बात, अगर आप सही भी हों तो भी एक हिंदू होने के नाते वो ब्रिटिशों, जिनके आप नौकर हैं, उनसे बहुत अच्छे होंगे".

देश पर शहीद हुए इस शहीद की यह रचना :
   
कस ली है कमर अब तो कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
हटने के नहीं पीछे डर कर कभी ज़ुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।
बेशस्त्र नहीं है हम बल है हमें चरखे का,
चरखे से ज़मीं को हम ता चर्ख गुँजा देंगे।
परवा नहीं कुछ दम की गम की नहीं मातम की है,
जान हथेली पर एक दम में गवाँ देंगे।
 उफ़ तक भी ज़ुबाँ से हम हरगिज़ न निकालेंगे,
तलवार उठाओ तुम हम सर को झुका देंगे।
 सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका,
चलवाओ गन मशीनें हम सीना अड़ा देंगे।
दिलवाओ हमें फाँसी ऐलान से कहते हैं,
खूं से ही हम शहीदों के फ़ौज बना देंगे।
मुसाफ़िर जो अंडमान के तूने बनाए ज़ालिम,
आज़ाद ही होने पर हम उनको बुला लेंगे।

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